Sunday, March 20, 2011

बसंती हवा

हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ !

सुनो बात मेरी -
अनोखी हवा हूँ !
बड़ी बावली हूँ
बड़ी मस्तमौला !
नहीं कुछ फिकर है
बड़ी ही निडर हूँ
जिधर चाहती हूँ,
उधर घूमती हूँ,
मुसाफिर अजब हूँ !

न घर-बार मेरा,
न उद्येश्य मेरा,
न इक्छा किसी की
न आशा किसी की
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ,
उधर घूमती हूँ,
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ !

जहां से चली मैं,
जहां को गयी मैं -
शहर, गाँव, बस्ती,
नदी, रेत, निर्जन,
हरे खेत, पोखर,
झुलाती चली मैं !
झुमाती चली मैं !

चढ़ी पेड़ महुआ,
थपाथप मचाया,
गिरी धम्म से फिर,
चढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोरा,
किया कान में 'कूँ'
उतारकर भागी मैं,
हरे खेत पहुंची -
वहाँ गेहुओं में
लहर खूब मारी !

पहर दो पहर क्या,
अनेकों पहर तक
इसी में रही मैं !
कड़ी देख अलसी
लिए शीश कलसी,
मुझे खूब सूझी -
हिलाया- झुलाया
गिरी पर न कलसी !
इसी हार को पा,
हिलाई न सरसों,
झुलाई न सरसों,

मुझे देखते ही
अरहरी लजाई,
मनाया-बनाया,
न मानी, न मानी;
उसे भी न छोड़ा -
पथिक आ रहा था,
उसी पर धकेला !
हंसी जोर से मैं,
हंसी सब दिशाएं,
हसें लहलहाते
हरे खेत सारे,
हंसी चमचमाती
भरी धूप प्यारी;
बसंती हवा में
हंसी सृष्टि सारी !

हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ !


---- केदारनाथ अग्रवाल

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Poetry and prose by Avishek Ranjan is licensed under a Creative Commons Attribution-ShareAlike 3.0 Unported License