Wednesday, January 27, 2010

हम दीवानों की क्या हस्ती...

हम दीवानों की क्या हस्ती,
हम आज यहाँ कल वहां चले
मस्ती का आलम साथ चला,
हम धूल उडाते जहाँ चले

आए बनकर उल्लास अभी
आँसू बनकर बह चले अभी,
सब कहते ही रह गए,
अरे तुम कैसे आए, कहाँ चले?

किस ओर चले? यह मत पूछो,
चलना है, बस इसलिए चले,
जग से उसका कुछ लिए चले,
जग को अपना कुछ दिए चले।

दो बात कही, दो बात सुनी,
कुछ हँसे और फिर कुछ रोये,
छक कर सुख दुःख घूंटों को
हम एक भाव से पिए चले।

हम भिखमंगों की दुनिया में
स्वछंद लुटा कर प्यार चले,
हम एक निशानी सी उर पर,
ले असफलता का भार चले

हम मान रहित, अपमान रहित
जी भरकर खुलकर खेल चुके,
हम हँसते हँसते आज यहाँ
प्राणों की बाजी हार चले!

हम भला बुरा सब भूल चुके,
नतमस्तक हो मुख मोड़ चले,
अभिशाप उठाकर होठों पर
वरदान दृगों से छोड़ चले

अब अपना और पराया क्या?
आबाद रहे रुकने वाले!
हम स्वयं बंधे थे,
और स्वयं हम अपने बंधन तोड़ चले!

- भगवतीचरण वर्मा

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Poetry and prose by Avishek Ranjan is licensed under a Creative Commons Attribution-ShareAlike 3.0 Unported License