Wednesday, June 16, 2010

वो मौसम का झोंका

किसी मौसम का झोंका था, जो इस दीवार पर लटकी हुई तस्वीर तिरछी कर गया है

गये सावन में ये दीवारें यूँ सीली नहीं थी
ना जाने क्यों इस दफ़ा इनमे सीलन आ गयी है,
दरारें पड़ गयी हैं
और सीलन इस तरह बहती है जैसे,
खुशक़ रुखरारों पे गीले आँसु चलते हैं.

ये बारिश गुनगुनाती थी इसी छत की मुंडेरो पर
ये बारिश गुनगुनाती थी इसी छत की मुंडेरो पर
ये घर की खिड़कियों के काँच पर उंगली से लिख जाती थी सन्देसे
गिरती रहती है बैठी हुई अब बंद रोशनदानों के पीछे.

दुपहरें ऐसी लगती हैं,
बिना मुहरों के खाली खाने रखें हैं
ना कोई खेलने वाला है बाज़ी
और ना कोई चाल चलता है

ना दिन होता है अब, ना रात होती है, सभी कुछ रुक गया है
वो क्या मौसम का झोंका था, जो इस दीवार पर लटकी हुई तस्वीर तिरछी कर गया है


--- गुलज़ार ( "पिया तोरा कैसा अभिमान", रेनकोट)

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Poetry and prose by Avishek Ranjan is licensed under a Creative Commons Attribution-ShareAlike 3.0 Unported License